आस्था खडी कटघरें में, कभी काशी तो कभी मथुरा और कभी अयोध्या था मुद्दा, मजहबो में पडती दरारे- दोषी?
अजीत द्विवेदी (आर0एन0एस0) आस्था का एक बड़ा सवाल फिर अदालत में है।
इससे पहले अयोध्या का मामला दशकों तक अदालत में चला था और तब एक पक्ष लंबे समय तक कहता रहा था कि यह आस्था का मामला है इसमें अदालत फैसला नहीं कर सकती है। तब से आज तक सरयू और गंगा में इतना पानी बह चुका है कि अब कोई यह नहीं कह रहा है कि शिवलिंग हमारी आस्था का सवाल है और अदालत इस पर फैसला नहीं कर सकती है।
अदालतों को ही आस्था का यह प्रश्न सुलझाना है कि ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में शिवलिंग है या फव्वारा और वह संरचना जो भी, उस पर किसका दावा है?
इस सवाल के जवाब से सदियों से चल रहा एक विवाद सुलझ सकता है, एक गुत्थी समाप्त हो सकती है या एक नया विवाद शुरू हो सकता है। अदालत के लिए इसे सुलझाना बहुत आसान नहीं होगा। एक तरफ धार्मिक व मिथक कथाओं और पांच सौ साल पुराने इतिहास के आधार पर किए जा रहे दावे हैं तो दूसरी ओर आधुनिक राष्ट्र राज्य में अंगीकार किए गए संविधान और कानून की व्यवस्था है।
चूंकि मुकदमा वाराणसी की निचली अदालत में भी है, इलाहाबाद हाई कोर्ट में भी है और सुप्रीम कोर्ट में भी इसलिए प्रमुख रूप से विचार कानूनी पहलुओं से ही होना चाहिए लेकिन उससे पहले कुछ अन्य बातों की चर्चा जरूरी है। जैसे यह कोई नया विवाद नहीं है और एक न एक दिन यह होना ही था।
पुरानी मान्यता है कि अगर किसी नाटक के पहले दृश्य में दीवार पर टंगी बंदूक दिखी है तो वह तीसरे दृश्य तक चलेगी जरूर। सो, अगर अयोध्या आंदोलन के समय यह नारा लगा था कि अयोध्या तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है तभी यह तय था कि एक न एक दिन मथुरा और काशी का मुद्दा उठेगा।
वह दिन आ गया है। काशी में जिस तरह की याचिका पर आए आदेश के बाद विवाद शुरू हुआ है उसी तरह की याचिका मथुरा में भी दाखिल हो गई है। अयोध्या के मुकाबले काशी और मथुरा का मामला ज्यादा प्रत्यक्ष है।
अयोध्या में यह साबित करना था कि भगवान राम का जन्म उसी जगह पर हुआ था, जहां बाबरी मस्जिद थी। लेकिन काशी विश्वनाथ मंदिर और वृंदावन मंदिर के बारे में ऐसा कुछ साबित करने की जरूरत नहीं है।
प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होती है। इन दोनों मंदिरों का लिखित इतिहास है कि मुस्लिम हमलावरों और बाद में शासकों ने भी इन्हें ध्वस्त किया और इनकी दीवार पर मस्जिदें खड़ी कीं। यह प्रत्यक्ष दिखता भी है इसलिए इसे छिपाया नहीं जा सकता है।
तभी कायदे से इसका फैसला भी अब तक हो जाना चाहिए था। अयोध्या के साथ ही अगर काशी और मथुरा का मामला निपट जाता तो दो सबसे बड़े संप्रदायों के बीच विद्वेष की संभावना थोड़ी कम हो जाती। सवाल है कि यह मामला कैसे निपटता?
अगर मुस्लिम समाज प्रत्यक्ष दिख रही वास्तविकता को स्वीकार करता और हिंदुओं की आस्था का सम्मान करते हुए दोनों मस्जिदों पर से दावा छोड़ देता तो पुराने घावों को कुरदने वालों को मौका नहीं मिलता। ध्यान रहे दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति खत्म होने के बाद रिकौंसिलिएशन कमेटी बनी थी, जिसके सामने गोरे लोगों ने अश्वेतों से अपनी ज्यादतियों से लिए माफी मांगी, कानूनों में बदलाव किए गए, कई एफर्मेटिव एक्शन शुरू हुए ताकि दोनों समूहों के बीच भाईचारा बहाल हो।
इस पूरे अभियान का संदेश था कि पहले हुई गलतियों या ज्यादतियों के लिए माफी मांगना कोई बुरी बात नहीं है। आखिर आज तक ब्रिटेन दुनिया भर के देशों से अपनी ज्यादतियों के लिए माफी मांग रहा है। रंगभेद और गुलाम प्रथा को बढ़ावा देने वाले अनेक लोगों की मूर्तियां दुनिया भर में गिराई जा रही हैं। यहां मुसलमानों को माफी नहीं मांगनी थी, बल्कि सद्भाव दिखाते हुए हिंदुओं को उनका पवित्र तीर्थ सौंप देना था। उनके लिए ये दो सामान्य मस्जिदें हैं लेकिन हिंदुओं के लिए काशी और मथुरा का बहुत बड़ा धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व है।
कह सकते हैं कि दो या तीन पवित्र तीर्थ सौंप देने से मामला नहीं थमता क्यों और भी धर्मस्थलों को लेकर ऐसी मांग उठती। कई मुस्लिम विद्वानों ने कहा है कि आरएसएस के पास ऐसी 50 हजार मस्जिदों की सूची है, जिन पर वे दावा करते है। इस तर्क को लेकर कोई इतिहास में और भी पीछे जा सकता है और दावा कर सकता है कि अनेक हिंदू धर्मस्थल बौद्ध धर्मस्थलों को नष्ट करके बनाए गए हैं तो हिंदू उन पर से अपना नियंत्रण छोड़ें। यह भी कह सकते हैं कि बाहर से आए आर्यों ने वैदिक संरचना को तहस-नहस किया और उनके ऊपर अपने स्थापत्य का ढांचा खड़ा किया।
लेकिन इस तरह के तर्कों से इस विवाद का कोई अंत नहीं होगा। क्योंकि इतिहास के हर दौर में हमलावरों और विजेताओं ने पराजित कौम की स्त्रियों, उनकी संपत्ति और उनके धर्मस्थल को निशाना बनाया है। सदियों बाद उसका बदला नहीं लिया जा सकता है।
इस तरह के विवादों को निपटाने के लिए एक रेखा खींचनी होगी और भारत में वह रेखा 1991 में खींची गई थी।
भारत में 1991 में धर्मस्थल काननू बनाया गया था, जिसमें कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 को जिस धर्मस्थल की जो स्थिति थी, उसे कायम रखा जाएगा। इसमें बाबरी मस्जिद को अपवाद के तौर पर छोड़ा गया था।
इस कानून के आधार पर ही मुस्लिम समुदाय दावा कर रहा है कि काशी और मथुरा या किसी दूसरे धर्मस्थल से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है। लेकिन क्या उनको पता नहीं है कि संविधान या कानून में लिखी गई बातें अंतिम नहीं होती हैं?
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार अंग्रेजों के जमाने में बने डेढ़ हजार कानून समाप्त कर चुकी है और आजादी के बाद 75 सालों में संविधान में भी सौ बार से ज्यादा संशोधन हो चुके हैं। ध्यान रहे 1991 में जब धर्मस्थल कानून पास हो रहा था उस समय भाजपा 120 सांसदों वाली पार्टी थी और उसने इसका विरोध किया था। अभी भाजपा के पास संसद में बहुमत है और अगर वह इस कानून को बदल दे तो क्या होगा?
सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे कई हिंदुवादी नेता नरेंद्र मोदी सरकार को इसी आधार पर हिंदू विरोधी ठहरा रहे हैं कि उनकी सरकार ने अभी तक धर्मस्थल कानून को समाप्त नहीं किया है।
बहरहाल, जब तक वह कानून है तब तक अदालतों और सरकारों को उसी के हिसाब से काम करना होगा। अगर अदालत उस कानून के हिसाब से फैसला करती है तो आस्था के ऊपर कानून भारी पड़ेगा। ज्ञानवापी परिसर में मिली संरचना के शिवलिंग प्रमाणित होने के बाद भी उसकी मौजूदा स्थिति को बदला नहीं जा सकेगा। सो, यह कैच-22 वाली स्थिति है। अदालत संतुलन बनाते हुए कोई रास्ता निकाले या सरकार दखल दे और कानून में बदलाव करे।
इसके अलावा एक रास्ता यह है कि दोनों समुदायों के बीच सद्भावना बैठक हो और आपसी सहमति से कोई रास्ता निकले। इस पर राजनीति करने वालों का एजेंडा भी सफल न हो इसके लिए भी जरूरी कि दोनों समुदायों को धर्मगुरू और आध्यात्मिक गुरू आपसी बातचीत से रास्ता निकालें।