छापों से क्या राजनीति सध जाएगी ? अजीत द्विवेदी

भारतीय जनता जिन राज्यों में मजबूत विपक्षी पार्टी है वहां केंद्रीय एजेंसियों ने कहर बरपाया हुआ है। शांति उन्हीं राज्यों में हैं, जहां भाजपा या तो सत्ता में है या बहुत कमजोर विपक्ष है और जहां निकट भविष्य में भाजपा को अपने लिए राजनीतिक संभावना नहीं दिख रही है। ऐसे राज्यों में तेलंगाना, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडि़शा आदि राज्य हैं। लेकिन जिन राज्यों में भाजपा मजबूत विपक्ष है या निकट भविष्य में अपने लिए संभावना देख रही है उन राज्यों में केंद्रीय एजेंसियों की सक्रियता अभूतपूर्व है। उन राज्यों में सीबीआई, आयकर विभाग, ईडी और यहां तक कि एनआईए के भी धुआंधार छापे पड़ रहे हैं। ऐसे राज्यों में महाराष्ट्र, झारखंड और पश्चिम बंगाल का नाम लिया जा सकता है। बिहार में जदयू के साथ गठबंधन में भाजपा की सरकार है लेकिन वहां भी भाजपा अपने लिए मजबूत राजनीतिक संभावना देख रही है इसलिए राज्य सरकार को चैन नहीं लेने दिया जा रहा है।

झारखंड के मुख्यमंत्री, उनके भाई, उनके माता-पिता और पार्टी के अनेक विधायकों व अधिकारियों के खिलाफ अनेक किस्म के मुकदमे हुए हैं। चुनाव आयोग से लेकर हाई कोर्ट और सीबीआई, ईडी, आयकर विभाग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता चक्कर लगा रहे हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री के भतीजे और बहू व पार्टी के कई नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की जांच चल रही है और आए दिन पूछताछ हो रही हैं। उधर महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार में मंत्री रहे दो नेता जेल में हैं। मुख्यमंत्री के परिजनों, उप मुख्यमंत्री व उनके परिजनों और शिव सेना-एनसीपी के सांसदों, विधायकों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की जांच चल रही है।
बिहार में भाजपा और जदयू की सरकार है लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी राजद मजबूत है और अगर जदयू ने साथ छोडऩे का फैसला किया तो राजद के साथ उसका खेल जम सकता है। ऐसी कोई संभावना साकार हो उससे पहले समूचे लालू परिवार को सीबीआई ने डेढ़ दशक पुराने एक मामले में जांच के घेरे में ले लिया है।
अगर कोई कहता और मानता है कि एजेंसियां स्वतंत्र हैं और रूटीन में ये सारे काम हो रहे हैं तो वह इस ग्रह का व्यक्ति नहीं है। जो हो रहा है वह सबके सामने है और मकसद भी कोई छिपा हुआ नहीं है। परंतु राजनीतिक पहल कहां है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि राजनीतिक पहल विफल होने या उसकी सफलता संदिग्ध होने की वजह से विपक्षी पार्टियों की साख बिगाडऩे, उन्हें परेशान करने और राजनीतिक अस्थिरता बनाने का प्रयास हो रहा है? ध्यान रहे एक सुनियोजित अभियान और प्रचार के दम पर विपक्ष के नेताओं को या तो भ्रष्ट या मूर्ख साबित करने का प्रयास किया जा रहा है। सरकार के अच्छे कामों का प्रचार अपनी जगह है लेकिन विपक्ष के खिलाफ दुष्प्रचार का जोर ज्यादा दिख रहा है। लेकिन इसके दम पर राज्यों की राजनीति में उलटफेर कर सकना संभव नहीं लग रहा है।
छापे और केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई अपनी जगह है लेकिन अगर भाजपा कोई ठोस राजनीतिक पहल नहीं करेगी तब तक यह संभव नहीं है कि वह दूसरी पार्टियों की सरकार गिरा दे या चुनावी सफलता हासिल कर ले। केंद्रीय एजेंसियों के छापों से सरकारें नहीं गिरा करती हैं। अगर ऐसा होता तो बिहार में लालू प्रसाद की सरकार 1997 में गिर गई होती, जब वे सीबीआई की गिरफ्त में आए और उन्होंने अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाया। लालू प्रसाद एजेंसियों की कार्रवाई के कारण नहीं, बल्कि नीतीश कुमार की अगुवाई में हुई राजनीतिक पहल से हारे थे। वह भी सीबीआई की गिरफ्त में आने के आठ साल बाद! भाजपा को यह बात समझने की जरूरत है। झारखंड में मुख्यमंत्री के परिवार और पार्टी के नेताओं के खिलाफ छापेमारी या एजेंसियों की कार्रवाई से सरकार नहीं गिरेगी। वैसे भी किसी चुनी हुई सरकर को क्यों गिराने का प्रयास होना चाहिए लेकिन अगर भाजपा ऐसा प्रयास कर ही रही है तो उसे राजनीतिक पहल करनी होगी, जैसी पहल कर्नाटक और मध्य प्रदेश में हुई थी। कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा की सुनियोजित योजना से सरकार गिरी थी तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की पहल और ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से सरकार गिरी। ऐसी कोई स्थिति झारखंड में कहां है? झारखंड में कहां भाजपा के पास येदियुरप्पा या शिवराज हैं या कहां जेएमएम-कांग्रेस में कोई सिंधिया हो रहा है?
इसी तरह महाराष्ट्र में भाजपा ने एक राजनीतिक पहल की थी और अजित पवार को साथ लेकर सरकार बनाई थी। राज्यपाल ने देवेंद्र फडऩवीस को मुख्यमंत्री और अजित पवार को उप मुख्यमंत्री की शपथ भी दिला दी थी। सोचें, तब क्या पवार दूध के धुले थे? तब भी उनके ऊपर सिंचाई घोटाले का आरोप था, सहकारी चीनी मिलों की गड़बडिय़ों का आरोप था, सहकारी बैंकों में गड़बडिय़ों का आरोप था और इसके अलावा अनेक आरोप थे। लेकिन भाजपा ने उनको साथ लेकर सरकार बना ली। जब वह राजनीतिक प्रयास विफल हो गया और अजित पवार महाविकास अघाड़ी सरकार में उप मुख्यमंत्री बन गए तो केंद्रीय एजेंसियों ने उनके और पूरे परिवार के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी। इन कार्रवाइयों के पीछे कोई नैतिक बल नहीं है। इसलिए हो सकता है कि तमाम आरोप सही हों लेकिन उन आरोपों पर कार्रवाई से वांछित नतीजे हासिल नहीं होंगे। चाहे झारखंड हो या महाराष्ट्र, चूंकि भाजपा की तरह से कोई ठोस राजनीतिक पहल नहीं हो रही है इसलिए सिर्फ छापों और केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के दम पर कुछ भी हासिल नहीं होगा।
पश्चिम बंगाल में एक साल पहले ही ममता बनर्जी ने तीसरी बार बड़ी जीत हासिल की। उनकी तीसरी जीत पहले की दोनों जीतों से बड़ी थी, जबकि उनके परिवार और पार्टी के अन्य नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई चुनाव के पहले से चल रही थी। जाहिर है ममता के परिवार और तृणमूल कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के आरोपों में कार्रवाई का वांछित राजनीतिक नतीजा नहीं निकला। सो, अब क्या नतीजा निकलेगा? पिछले एक साल में तो भाजपा की गाड़ी पटरी से उतर गई दिख रही है। उसके नेता लगातार पार्टी छोड़ रहे हैं। बंगाल एकमात्र राज्य है, जहां उलटी गंगा बह रही है। पूरे देश में दूसरी पार्टियों के नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं तो बंगाल में भाजपा के सांसद और विधायक भी तृणमूल में जा रहे हैं। भाजपा को इस संकेत को समझना चाहिए। बंगाल में भाजपा के पास न कोई राजनीतिक एजेंडा है, न मजबूत संगठन है और न नेता हैं। इसलिए छापों की कार्रवाई से वहां भाजपा सत्ता में नहीं आ पाएगी।
भाजपा को यह समझना होगा कि चाहे झारखंड हो या महाराष्ट्र या पश्चिम बंगाल, सिर्फ इसलिए कि इन राज्यों में भाजपा मजबूत विपक्षी पार्टी है, वह सरकार को अस्थिर करके या परेशान कर सत्ता में नहीं आ सकती है। भाजपा सत्ता में तभी आएगी, जब वह राजनीतिक पहल करेगी, नेतृत्व मजबूत करेगी, एजेंडा तय करेगी और संगठन को आगे करेगी। इस राज्य में अमुक नेता मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं और उस राज्य में अमुक नेता हाथ पैर मार रहे हैं तो उससे चुनी हुई सरकारें नहीं गिरती हैं।

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