वे बिके क्योंकि बिकना उनकी नियति

वे बिक गए, बिकना ही था। पूंजीवाद के दौर में क्या नहीं बिक रहा है! आजकल यह बिकने का खेल वैश्विक बाजार की जरूरत हो गया है। बिकने की कला जिसे आ गई, वह रातोरात जीरो से हीरो बन सकता है। बिकने के खेल में, चतुर लोग गंजे को कंघी बेच रहे हैं। बस आपका कुछ न कुछ भाव-ताव व किसी ओर झुकाव होना चाहिए, आपको बिकने से कोई नहीं रोक सकता है। किसी की मजाल कि आजकल कोई किसी को बिकने से रोक सके। जब दसों दिशाओं में बाजार गुलजार हैं तो फिर कुछ न कुछ बिकने के लिए ही बाजार सजा है! अब बाजार में कोई खेल के माध्यम से बिके या फिर बिकने का खेल खेल रहे हैं। वहीं बहुत से होनहार-बिरवान नौजवान बेरोजगारी के नाम पर जॉब फेयर या फिर कॉलेज प्लेसमेंट में भी बिक रहे हैं!
आखिरकार अपने भाव का मान रखने के लिए थोड़ा-बहुत तो बिकना ही पड़ता है। और कोई नेता किसी तरह की टिकट पाने के लिए पूरा ही बिक जाए तो वह जनता की सेवा के नाम पर ही बिकता है!
मंडी की बात करें तो मंडी सिफऱ् राजनीति की ही नहीं होती, वह कई प्रकार की हो सकती है। अनाज सब्जी, पालतू पशु जानवर आदि की मंडी अब पुरानी बात हो गई। अब बेरोजगारों व बड़े पैकेज की मंडियों का जमाना है। इन मंडियों में आजकल प्रतिभाओं की बोलियां लगती हैं! कुछ प्रतिभाएं असली होती हैं और कुछ अपने जुगाड़ व जोड़तोड़ से इन मंडियों में बिकने को स्वयं को प्रतिभाशाली बनाकर प्रस्तुत हो जाती हैं। रुपये व आदमी का जैसे-जैसे मूल्य घट रहा है, नई-नई प्रतिभाएं बिकने को बढ़ रही हैं। पुराने खनकदार सिक्के तो अब बाजार में कम ही दिखते हैं।

जो थोड़े-बहुत बचे हैं उन्हें नये सेठों ने मार्गदर्शक मंडल रूपी लॉकर में डाल रखा है। कुछ सिक्के बरसों से बिकने को बैठे हैं लेकिन उन्हें कोई खरीदार ही नहीं मिल रहा है। ये बार-बार ट्विटर बाजार में अपने बिकने की तख्तियां लेकर खड़े हो जाते हैं, पर इन्हें यह कहकर बिठा दिया जाता है कि पहले अपना भाव बढ़ाओ फिर बाजार में बिकने आना। इन बेचारों को पता ही नहीं है कि भाव कैसे बढ़ाया जाता है। शायद इन्हें अब तक डिजिटल करेंसी का पता नहीं चला है। सोशल मीडिया की भी कम जानकारी रखते हैं, नहीं तो कब के बिक जाते।
इधर जब से सोशल मीडिया की मंडी का उदय हुआ, पूंजीवाद व बाजारवाद के लिए जैसे स्वर्णिम काल आ गया हो। इस मंडी के कारण ’12 साल में तो घुरे के भी दिन फिरते हैंÓ वाली लोकोक्ति सच हो गई है। ‘कंडे से लेकर कलम तक इस मंडी में शान से बिक रहे है।Ó वहीं बार-बार सोशल मीडिया के मंचों से बिकने वाले कह रहे हैं!
बिकने की उनकी मजबूरी भी है। वे बेचारे नहीं बिके तो फिर क्या करें? आखिर कब तक विपक्ष में बैठे रहें। उन्हें हमेशा से ही लोकतंत्र के गुलज़ार बाजार में रहने की आदत रही है। उन्हें बड़े सेठों के हाथों में रहना ही पसंद आया है। मेरे एक प्रौढ़ मित्र का तो यहां तक कहना है कि ‘जो इस बाजार में जैसे-तैसे बिक गया, सो बच गया।Ó इसलिए ही ‘वे बिक रहे हैं, क्योंकि उन्हें ‘जनता की सेवाÓ के लिए जिंदा जो रहना था…!Ó

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